आज अद्भुत छवि निज निहारी
आज अद्भुत छवि निज निहारी, भाव दूर भगे सब विकारी।
पूर्ण प्रभुता प्रभु सी लखाई, दीनता आज सारी पलाई ॥ मैं स्वयं ही सहज सुख सागर, चेतनादिक गुणों का हूँ आगर। शक्ति शाश्वत अपरिमित सु-धारी, आज अद्भुत छवि निज निहारी ॥१॥ निज प्रदेशत्व रूपी किला है, जो कभी ना किसी से भिदा है। कर्म रागादि भी रहते बाहर, पैठ पायें कदापि न अन्दर ।। अन्तरंग में सदा अविकारी, आज अद्भुत छवि निज निहारी ॥२॥
भूल से हीन मैंने था माना, आज देखा स्वयं का निधाना।
अहा ! वैभव अगुरुलघु ही पाया, द्रव्यपन ज्यों का त्यों ही लखाया।
अब जरूरत सभी की विसारी, आज अद्भुत छवि निज निहारी ॥३॥
जागी सम्यक्ज्ञान कला है, दूर भागी मिथ्यात्व बला है।
मुक्ति मुझको तो मुझमें ही दिखती, दृष्टि बाहर कहीं भी न टिकती॥
होवे थिरता प्रभो सुखकारी, आज अद्भुत छवि निज निहारी ॥४॥
धन्य अवसर प्रभो आज पाया, मुझे निज का माहात्म्य दिखाया।
निज ही सर्वोत्कृष्ट सही है, कामना अब नहीं कुछ रही है।
मैं तो मंगलमय चिन्मूर्तिधारी, आज अद्भुत छवि निज निहारी ॥५॥
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