अमूल्य तत्त्व विचार

बहु पुण्य-पुंज प्रसंग से शुभ देह मानव का मिला।
तो भी अरे! भाव चक्र का फेर न एक कभी टला।।
सुख- प्राप्ति हेतु प्रयत्न करते, सुख जाता दूर है।
तू क्यों भयंकर भाव-मरण, प्रवाह में चकचूर है।।1।।

लक्ष्मी बढ़ी अधिकार भी, पर बढ़ गया क्या बोलिये।
परिवार और कुटुम्ब है क्या? वृद्धिनय पर तोलिये।।
संसार का बढ़ना अरे! नर देह की यह हार है।
नहीं एक क्षण तुझको अरे! इसका विवेक विचार है।।2।।

निर्दोष सुख निर्दोष आन्नद लो जहाँ भी प्राप्त हो ।
यह दिव्य अन्तःतत्त्व जिससे, बंधनों से मुक्त हो।।
पर वस्तु में मूर्छित न हो, इसकी रहे मुझको दया ।
वह सुख सदा ही त्याज्य रे! पश्चात् जिसके दुःख भरा।।3।।

मैं कौन हूँ? आया कहाँ से ? और मेरा रूप क्या?
सम्बन्ध दुखमय कौन है? स्वीकृत करूँ परिहार क्या।।
इसका विचार विवेकपूर्वक, शांत होकर कीजिये ।
तो सर्व आत्मिकज्ञान के, सिद्धांत का रस पीजिये।।4।।

किसका वचन उस तत्त्व की, उपलब्धि में शिवभूप है।
निर्दोष नर का वचन रे! वह स्वानुभूति प्रसूत है।।
तारो अरे! तारो निजात्मा , शीघ्र अनुभव कीजिये।
सर्वात्म में समदृष्टि दो, यह वच हदय लिख लीजिये।।5।।


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