धन्य मुनिराज की समता, धन्य मुनिराज का जीवन।
धन्य मुनिराज की थिरता, प्रचुर वर्ते स्वसंवेदन॥ टेक॥
शुद्ध चिद्रूप अशरीरी, लखें निज को सदा निज में।
सहज समभाव की धारा, बहे मुनिवर के अन्तर में॥
है पावन अन्तरंग जिनका है बहिरंग भी सहज पावन ॥१ ।।
कर्मफल के अवेदक वे, परम आनन्द रस वेदे ।
कर्म की निर्जरा करते, बढ़े जायें सु शिवमग में।
मुक्ति पथ भव्य प्रकटावे, अहो करके सहज दर्शन ॥२॥
परम ज्ञायक के आश्रय से, तृप्त निर्भय सहज वर्ते।
अवांछक निष्पृही गुरुवर, नवाऊँ शीश चरणन में।
अन्तरंग हो सहज निर्मल, गुणों का होय जब चिन्तन ॥३॥
जगत के स्वांग सब देखें, नहीं कुछ चाह है मन में।
सुहावे एक शुद्धातम, आराधैं होंस है मन में।
होय निर्ग्रन्थ आनन्दमय, आपसा मुक्तिमय जीवन ॥४॥
भावना सहज ही होवे, दर्श प्रत्यक्ष फल पाऊँ।
नशे रागादि की वृत्ति, अहो निज में ही रम जाऊँ।
मिटे आवागमन होवे, अचल ध्रुव सिद्धगति पावन ॥५॥
धन्य मुनिराज की थिरता, प्रचुर वर्ते स्वसंवेदन॥ टेक॥
शुद्ध चिद्रूप अशरीरी, लखें निज को सदा निज में।
सहज समभाव की धारा, बहे मुनिवर के अन्तर में॥
है पावन अन्तरंग जिनका है बहिरंग भी सहज पावन ॥१ ।।
कर्मफल के अवेदक वे, परम आनन्द रस वेदे ।
कर्म की निर्जरा करते, बढ़े जायें सु शिवमग में।
मुक्ति पथ भव्य प्रकटावे, अहो करके सहज दर्शन ॥२॥
परम ज्ञायक के आश्रय से, तृप्त निर्भय सहज वर्ते।
अवांछक निष्पृही गुरुवर, नवाऊँ शीश चरणन में।
अन्तरंग हो सहज निर्मल, गुणों का होय जब चिन्तन ॥३॥
जगत के स्वांग सब देखें, नहीं कुछ चाह है मन में।
सुहावे एक शुद्धातम, आराधैं होंस है मन में।
होय निर्ग्रन्थ आनन्दमय, आपसा मुक्तिमय जीवन ॥४॥
भावना सहज ही होवे, दर्श प्रत्यक्ष फल पाऊँ।
नशे रागादि की वृत्ति, अहो निज में ही रम जाऊँ।
मिटे आवागमन होवे, अचल ध्रुव सिद्धगति पावन ॥५॥
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